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कला का मूल उत्स मानव हृदय है। भावनाएं अपना सृजन संसार स्वंय् चुन लेती हैं। अभिव्यतत का माध्यम कोई भी हो सृजनकर्ता अपने गंतव्य पर बढ़ता चलो जाता है। व्यवसायिक परिवार में रहकर भी ललित कलाओं का वातावरण मुझे मिला। कलाओं के प्रति रुझान दृष्टिकोण बदल देता है। परिस्थितियाँ सुखद रहीं अतः बचपन और विद्यार्थी जीवन भी अच्छा रहा। मेरा जन्म प्रयाग में हुआ किन्तु परवरिश और शिक्षा उज्जैन में हुई। सौभाग्य से जब हिन्दी में एम. ए. कर रही थी तब साहित्य शिरोमणि डॉ. शिवमंगल सिंह जी सुमन माधव कॉलेज में प्राचार्य थे एवं प्रत्येक शुक्रवार को हिन्दी एम.ए. की कक्षाएँ लेते वह भी तीन-चार घण्टे तक। सुमन जी ने उन दो सालों में हिन्दुस्तान के लगभग सभी बड़े कवियों एवं शायरों को उज्जैन बुलवाया। हम विद्यार्थियों को ही उनको सुनने, उनसे बात करने का स्वर्ण अवसर मिला। ये स्मृतियाँ मेरे लिए अनमोल हैं। सुमनजी हँसते हुए कहते थे- जो विक्रम विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम.ए. करता है वह 'कविया' जाता है। उस समये प्रसिद्ध कविं रमेश गुप्ता चातक, हरीश निगम, भगीरथ बड़ोले, बालमुकुन्द गर्ग, राजेन्द्र आर्य आदि मेरे सहपाठी थे। पिरियड खाली होने पर काव्य गोष्ठी शुरू हो जाती। धीरे-धीरे -हे लेखनी भी चलने लगी। कभी सोचा भी नहीं था कि मेरी पुस्तक भी छपेगी। समय बड़ा बलवान। मैं कविताएँ लिखती रही और एक समय आया जब पुस्तक प्रकाशित भी हुई। एक शोध प्रबंध एवं पाँच कविताओं की पुस्तके छप चुकी हैं इसका मुझे संतोष है। मेरा लेखन जारी है। कई पुस्तकें प्रकाशित होना शेष है। देखिये कितना हो पाता है।?
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